आज के दौर में यह शिकायत आम माता–पिता की है कि हमारे बच्चे कहना नहीं मानते। कभी–कभी उन्हें शिकायत के चलते बहुत चिढ़ होने लगती है, वह दुखी परेशान होते हैं। इसी वजह से कभी–कभी उनको हताशा घेर लेती है। समझ में नहीं आता है, क्या करें? कैसे उन्हें समझाएँ? बच्चों को जब देखो शैतानी, उठापटक, तोड़फोड़, थोड़ी देर भी वे एक जगह पर चुपचाप नहीं बैठ सकते, उन्हें कुछ याद करने को कहो, पाठ तैयार करने –के लिए कहो तो नहीं कर पाते हैं। जो हालत घर में है वही स्कूल में भी है।
आखिर कहना क्यों नहीं मानते आज के बच्चे ? | Reasons Why don’t Today’s Children Listen?
अभी कोविड 19 आया तो सभी माता–पिता को समझ आ गया है कि एक शिक्षक कैसे कक्षा कक्ष में 20 से 25 बच्चों को एक साथ पढ़ाते होंगे। वही दूसरी ओर टीचर भी परेशान रहते हैं, घर शिकायत भेजते हैं कि आपका बच्चा पढ़ते समय एकाग्रता से नहीं सुनता, उल्टे दूसरे बच्चों की तन्मयता को तोड़ता .है। कक्षा में साथी बच्चों से खूब लड़ाई करता है। रोज–रोज शिकायतों से माता–पिता की परेशानियाँ चौगुनी हो जाती. हैं। कभी–कभी शैतानी इतनी बढ़ जाती है कि बीमारी का रूप ले लेती है। जिसे विशेषज्ञों ने अटेंशन डिफिसिट डिसऑर्डर इसे हिन्दी अनुवाद में “उपेक्षा–असंतुलन” का नाम दिया है।
विशेषज्ञों का मानना है कि पहले यह बीमारी केवल विदेशों के बच्चों: में पाई जाती थी किंतु भारत में इसका प्रतिशत बिलकुल भी नहीं था। परन्तु अब भारत में भी यह समस्या गंभीर रूप धारण कर चुकी है। हमारे भारत में इसका कारण सिर्फ यही है कि संयुक्त परिवार अब नहीं रहे। बच्चे ही नहीं माता–पिता दोनों. अपने–अपने कार्यों में सवेरे से ही लग जाते हैं। जो नौकरी पेशा दम्पति हैं, उन्हें और भी फुर्सत नहीं है। वह दूसरों के भरोसे अपने बच्चों को छोड़कर अपने कार्यस्थल पर चले जाते हैं जिसके कारण बच्चे को भरपूर स्नेह नहीं मिल पाता है, वह अपने आप को अकेला महसूस करता है।
जब वह सवेरे जागता है तब माता पिता काम पर निकल जाते हैं और रात को जब लौटते हैं तब उसके सोने का समय हो जाता है। इससे बच्चे को अपने माता-पिता का भरपूर सान्निध्य नहीं मिल पाता। वहीं धनाढूय वर्गों में मा-पिता जी को व्यवसाय, पार्टी से समय नहीं बचता कि वह समय दे सकें। वर्तमान में तो मध्यम वर्ग में भी यह बीमारी घर कर चुकी है। किटी पार्टी, मोबाइल और टेलिवीजन ने बच्चों का बचपना छीन लिया है। उन्हें कार्टून देखना अच्छा लगता है, न कि खेलना-कूदना।उनका अपने माता-पिता से, अपने परिजनों से संवाद नगण्य है। सर्वेक्षण के अनुसार करोड़ों बच्चे इस बीमारी की विकृति से ग्रस्त हो चुके हैं, क्योंकि कुछ दम्पति अपने अज्ञान और कुछ अपनी व्यस्तता के कारण ध्यान नहीं दे पाते हैं। इसलिए लाखों बच्चे बड़े होकर असामाजिक हो जाते हैं। जब माता-पिता समाधान की खोज में इधर-उधर भटकते हैं व उचित ढंग से समाधान न मिलने पर आपस में ही लड़ने-झगड़ने लगते हैं, तब लड़ाई से भी बच्चों की गतिविधियों में अनुचित गति आ जाती है।
माता-पिता की यह असमर्थता. उन्हें पहले से और अधिक शैतानी करने को उत्सुक करती है। यह कोई काल्पनिक कथन नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक तथ्य है। विश्व के बाल मनोवैज्ञानिकों ने अपने अनेक प्रयोगों से इसे प्रमाणित किया है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि आज की भागती दौड़ती हमारी सामाजिक दिनचर्या ने बच्चों को हमसे दूर कर दिया है। आवनात्मक पोषण, सही देखरेख, सकारात्मक संवांद के अभाव में बच्चे कुछ ज्यादा ही सुनी-अनसुनी करने लगे हैं। उनकी गतिविधियाँ कुछ ज्यादा ही शैतानियों से भरी हुई होती हैं। मनोचिकित्सकों का प्राथमिक तौर पर मानना है कि इसके अनेक लक्षण हैं पहला एकाग्रहीनतां दूसरा अति सक्रियता एवं तीसरा कभी भी काम करने के लिए मजबूर हो जाना।
“मुझे तो यही लगता है कि जब बच्चा अपने मा के गर्भ में पत्ता है तो आसपास के वातावरण से वह प्रभाव ग्रहण करता है। हमने अभिमन्यु के चक्रव्यूह की कहानी तो सुनी ही है और विज्ञान ने भी इसे साबित कर ही विया है। आज पुंसवन संस्कार एवं गर्भ संस्कार भी आधुनिक माताओं को सिखाए जा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर जब बच्चों को अनदेखी करने की प्रवृत्ति हो जाती है तब यह अटेंशन डिफिसिट डिसऑर्डर (जिसका शाब्दिक अर्थ है देखरेख की कमी) से होने वाली व्याधि, विकराल होने लगती है।”
इन तीन मुख्य लक्षणों के अलावा उपेक्षा से उनका मन असंतुलन की बीमारी से ग्रसित हो जाता है। बच्चों में चित्त का भटकाव, मन का अस्थिर हो जाना जिसके कारण कभी-कभी वे गम्भीर अपराध भी कर बैठते हैं। जैसा कि हम अनेक बार देख चुके हैं कि बच्चों ने गोलियाँ चला दीं, किसी को चाकू मार दिया, साथ ही अपने को हीन समझ लेना आदि। लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने वाला कार्य करना, ख्याली पुलाव बनाना, मिलजुल कर न रहना, अति कमजोर याददाश्त, धैर्य की कमी, दूसरों को परेशान करने वाला व्यवहार, कभी-कभी चोरी करने की प्रवृत्ति भी देखने को मिलती है। जब परिवार, समाज ऐसे बच्चों को सम्भाल नहीं पाता है और इन्हें छोड़ देता है तो ऐसे बच्चे अक्सर पढ़ाई करना छोड़ देते हैं। कभी-कभी अवसाद से गम्भीर रूप से ग्रसित होकर बीमार पड़ जाते हैं। उस दशा में उन्हें नियंत्रित करना मुश्किल हो जाता है।
हाल ही में शोध व अनुसंधान से पता चला है कि यह शुरुआती कारणों में भ्रूण-अवस्था या बचपन में संक्रमण से दिमाग को होने वाले मामूली नुकसान से ऐसा होता है। मैं स्वयं इस बात को स्वीकार करती हूँ। करीब 22 वर्षों से मैं शिक्षण के क्षेत्र में कार्य कर रही हूँ और करीब 5 वर्ष पूर्व जब मैंने शिशु वाटिका से, जिसे अंग्रेजी में किंडर गार्डन कहा जाता है, शुरुआत की तब के बच्चे और आज के बच्चों में बहुत परिवर्तन आया है। पहले जब प्लेग्रुप, नर्सरी के बच्चे आते थे तो वे खिलौने को अपने सीने से लगाकर बहुत ही प्रेम से रखते और कहीं टूट न जाए इसका ध्यान रखते थे। परन्तु आज के बच्चों को जब मैं देखती हूँ तो बहुत पीड़ा होती है। इन नन्हें मुन्ने बच्चे के कोमल मन पर न जाने किस प्रकार का प्रभाव पड़ा है कि वे अपने खिलौने को इस प्रकार से तोड़ते मरोड़ते हैं कि एकाध दिन में ही सारे खिलौनों में से किसी का हाथ टूटा है तो किसी का पहिया। किसी की नाक टूटी है तो किसी का मूँह टूटा है। इसका अन्दाजा लगा पाना कठिन है कि वे ऐसा क्यों करते हैं। साफूट ट्वायज की दुर्गति तो आप सोच भी नहीं सकते, किस वीभत्स तरीके से उसकी दुर्गति करते हैं। इस अवस्था को देखकर मुझे तो यही लगता है कि जब बच्चा अपने माँ के गर्भ में पलता है तो आसपास के वातावरण से वह प्रभाव ग्रहण करता है। हमने अभिमन्यु के चक्रव्यूह की कहानी तो सुनी ही है और विज्ञान ने भी इसे साबित कर ही दिया है। आज पुंसवन संस्कार एवं गर्भ संस्कार भी आधुनिक माताओं को सिखाए जा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर जब बच्चों को अनदेखी करने की प्रवृत्ति हो जाती है तब यह अटेंशन डिफिसिट डिसऑर्डर (जिसका शाब्दिक अर्थ है देखरेख की कमी) से होने वाली व्याधि, विकराल होने लगती है।
माता-पिता या अभिभावक आजकल बच्चों पर जरूरत से ज्यादा डॉक्टर, इंजीनियर या टॉपर बनाने के चक्कर में उनका बचपन ही छीन रहे हैं। आश्चर्य तब होता है जब वे डेढ़ साल के बच्चे को लेकर आते हैं और कहते हैं कि इसका ‘एडमिशन” यानि नामांकन करवाना है। मुझे मन ही मन बहुत क्षोभ होता है। फिर अभिभावकों को समझाकर यह कहना पड़ता है कि थोड़ा और बड़ा हो जाने दीजिए। इसको अभी घर का वातावरण दीजिए और इसे अपने स्नेह व स्पर्श से दुलार दीजिए। अभी इसे आपके परिवार की आवश्यकता है। वह पूरा कार्य अभी घर में ही सीख जाएगा उसे बताने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जैसा कि हम जानते हैं कि बच्चा स्वभाव से ऐसा कोमल होता है कि उसे हम जिस कार्य को मना करेंगे वह वही करना चाहेगा व वही करता भी है। वह : हमारी छोटी-छोटी व्यवहारगत चीजों से सीखता है। उदाहरणस्वरूप घर के मंदिर में दिया जल रहा है तो हमें यह तो पता है कि वह जाएगा उसे छुएगा तो उसकी अंगुली जल जाएगी पर हम उसे कितना भी मना करेंगे तो वह वहाँ जरूर जाएगा और उसे छुएगा तो उसे छूने दीजिए।
“वही दूसरी ओर माता-पिता बच्चों पर कुछ ज्यादा ही ध्यान देने लगते हैं और उनकी हर नाजायज मांगों की पूर्ति करने लगते हैं या उनको इतना ज्यादा अपनी निगरानी में रखने लगते हैं कि बच्चों की स्वतंत्रता बाधित होने लगती है। प्रसिद्ध बाल मनोवैज्ञानिक ग्रोफेसर हॉस्टन कहना है कि “बच्चों का पालन पोषण एक माली के समान कुशलता से करनी चाहिए। उन्हें इतना न अनदेखा करें कि आवश्यक खाद-पानी भी न मित्र पके और ज्यादा अतिरेकी देखभाल भी न करें कि उन्हें स्वाभाविक रूप से मिलने वाली हवा और प्रकाश भी अवरुद्ध हो जाए।”
थोड़ा सा झटका लगेगा तो अपने आप ही दुबारा उसके पास नहीं जाएगा अर्थात उसको सही और गलत की पहचान अपने कार्य से ही हो जाएगी।लेकिन उसे अपने सामने ही रखना होगा उसकी अवस्था इस लायक नहीं है कि उसे अकेले रखा जाए। वर्तमान की दूसरी समस्या टी. वी. और मोबाइल है, माता-पिता को लगता है कि मेरी एक ही संतान या दो संतान हैं, इन्हें थोड़ा भी चोट नहीं लगनी चाहिए। बाहर नहीं खेलने जाने देते हैं जिसके कारण उसका मानसिक विकास तो होता है पर शारीरिक विकास रुक जाता है। घंटों हाथों में रिमोट लेकर या वीडियो गेम खेलता बच्चा मानसिक रूप से तो बलवान हो जाता है परन्तु शारीरिक रूप से कमजोर हो जाता है। कई बार तो ज्यादा टी.वी. या मोबाइल पर गेम या वीडियो देखने से भी वह कई बीमारियों से ग्रसित हो सकता है। यह भी हमें ही सोचना चाहिए।
वही दूसरी ओर माता-पिता बच्चों पर कुछ ज्यादा ही ध्यान देने लगते हैं और उनकी हर नाजायज मांगों की पूर्ति करने लगते हैं या उनको इतना ज्यादा अपनी निगरानी में रखने लगते हैं कि बच्चों की स्वतंत्रता बाधित होने लगती है। प्रसिद्ध बाल मनोवैज्ञानिक प्रोफेसर हॉस्टन कहना है कि “बच्चों का पालन पोषण एक माली के समान कुशलता से करनी चाहिए। उन्हें इतना न अनदेखा करें कि आवश्यक खाद-पानी भी न मिल सके और ज्यांदा अतिरेकी देखभाल भी न करें कि उन्हें स्वाभाविक रूप से मिलने वाली हवा और प्रकाश भी अवरुद्ध हो जाए। बच्चे आपकी हर बात को ध्यान से सुने और उसका पालन करें एवं शरारत व शैतानी कम करें।
इसके लिए माता-पिता को कुछ आवश्यक बिन्दुओं को जरूर अपनाना चाहिए –
(1) आप बच्चों के स्वयं रोलमॉडल बने, स्वयं ऐसे कार्य न करें. जिनके लिए आप उन्हें रोकते हैं।
(2) बच्चों की हर जायज व नाजायज माँग पूरी करने के बजाए धीरे-धीरे उन्हें सही गलत का बोध कराएँ।
(3) जीवन के सभी व्यावहारिक ज्ञान व जैसे दूसरे बच्चों से कैसे व्यवहार करे, उसको उठने बैठने का तरीका, चलने-दौड़ने का तरीका, शिष्टाचार के सामान्य ज्ञान के बारे में उन्हें धीरे-धीरे पर थोड़ा-थोड़ा रोज बताएँ। .
(4) छोटी-छोटी बातों पर झड़प नहीं बल्कि प्यार से समझाएँ व अनजान लोगों के सामने कदापि भी अपमानित नहीं करें।
(5) अच्छी बात, अच्छे काम करने पर सराहना करें, प्रोत्साहित करें, प्रशंसा करें। उनकी कलात्मक व रचनात्मक प्रतिभा को विकसित करने का अवसर दें। उन्हें केवल किताबी कीड़ा बनने से रोकें। यदि वे अपनी मातृभाषा हिन्दी समझते हैं तो उन पर अंग्रेजी का बोझ न डालें। वह पढ़ने में थोड़ा सा कमजोर भी है तो पढ़ाई उतना ही करवाए जितना वह उन्हें ग्रहण कर सके।
(6) उसकी रुचि का अवलोकन करें व उसकी पसंद के कोर्स जितना वह सीख सके सीखने का अवसर दें इससे उसका मन लगेगा और उसमें उसका लाभ होगा।
(7) कक्षा में कुछ समझ नहीं आएगा तो वह कुंठित होगा और धीरे-धीरे वह पीछे होता चला जाएगा। इसलिए उसकी मानसिक ग्राह्मता के हिसाब से ही उसे किस माध्यम में पढ़ना है वह भी सोंचे।
चंडीगढ़ के एक मनोचिकित्सा विशेषज्ञ का कहना है कि बच्चे आपकी बात मानें इसके लिए यह जरूरी है कि आप अपने प्रति बच्चों में विश्वास उत्पन्न करें। अपने प्रेम से उन्हें आश्वस्त करें।
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अनुभवी चिकित्सकों का कहना है कि शैतानी और शरारत की अति को गंभीर रोग मानकर घबरा जाना तो ठीक है पर इसके प्रति अधिक लापरवाही करना उचित नहीं है। बच्चों की शैतानी व शरारत में उपयोग होने वाली ऊर्जा को यदि रचनात्मक गतिविधियों में बदला जा सके तो उनकी प्रतिभा में आश्चर्यजनक बढ़ोत्तरी हो सकती है। बस इसके लिए इतना भर जरूरी है कि बच्चों की सही देखरेख के प्रति हमेशा से जागरूक रहें और उनकी जीवनी शक्ति को रचनात्मक कार्यों की ओर प्रेरित करें। लगातार धैर्य पूर्वक प्यार व सद्भाव से ऐसा करने पर बच्चे शरारत छोड़कर हमारी हर शिकायत को दूर कर सृजन, प्रयोजन में लग जाएँगे। उन्हें यह भी समझ आएगा कि हम सही कर रहे हैं या गलत। निर्णय लेने की क्षमता के विकास में उन्हें बहुत मदद मिलेगी। उन्हें आपसे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए वे आपका थोड़ा सा स्नेह, आपका थोड़ा सा समय चाहते है और उन्हें आपका आत्मिक सान्निध्य, और अपने दादा-दादी या नाना-नानी का सान्निध्य चाहिए जिनसे वे किस्से व कहानियाँ सुनकर, आत्मसात कर वे समाज, परिवार, राष्ट्र के एक जिम्मेदार नागरिक बन सकें ।
सुश्री सुषमा यदुवंशी
शिशु शिक्षा विशेषज्ञ, लेखिका
साभार : विद्या भर्ती प्रदीपिका
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